نظمــتُ
بحبهـا
ديـوان
شـعر
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فكـان
لـه
صـدى
فـي
كل
صدر
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ومـا
اخفيـت
مكنونـات
قلبي
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فـدمع
العيـن
بـاح
بكـل
سر
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وهـاج
الشـوق
حتى
ضاع
رشدي
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واعيـى
وصـفه
نظمـي
ونـثري
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ذكــرت
مليحـة
نسـيت
ودادي
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فطـاب
لمعشـر
العشـاق
ذكري
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مضـى
زمـن
وعينـي
لا
تراهـا
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فـذلك
ليـس
مـن
أيـام
عمري
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وجـاورتُ
القفـارَ
وليـس
بدع
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إذا
بـات
الحزيـن
اليف
قفر
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فيـا
اخت
الغزال
كفاك
هجراً
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فـإني
قـد
سـئمت
حيـاة
هجر
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أراكِ
قهرتنـي
يـوم
التجافي
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وعانـدني
القضاء
فطال
قهري
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وما
أنا
صابرٍ
في
العسر
إلا
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ليـأتيني
الزمـان
بيوم
يسر
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فيــوم
واحـد
برضـاك
ينفـي
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عـن
الصبّ
المشوق
هموم
دهري
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إذا
افتخـرت
افاضـلنا
بمجدٍ
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فـانتِ
فضـيلتي
وهـواك
فخري
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وان
كـانت
حيـاتي
الـف
عام
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وهجـرك
قـاتلي
فمنـاي
قبري
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غـدرتِ
بمـن
وفي
والغدر
عار
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فحاشـا
ان
تكـوني
ذات
غـدرِ
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وحـقَّ
رجـاي
فيـك
انـا
وفـي
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سـليم
فـي
الهوى
من
كل
وزرِ
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تحـدثني
بنيـل
رضـاك
نفسـي
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وان
حكـم
القضـا
بدوام
فقرِ
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ولســت
بقـاطع
مـا
ارتجيـه
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وان
قطـع
الزمان
حبال
صبري
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فكـم
مـن
مـرةٍ
طمعـت
بقتلي
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عـداي
فكنتِ
في
الأهوال
ذخري
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وانـتِ
اليـوم
قاتلتي
ومالي
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ســواك
فخففـي
بـاللَه
ضـري
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خـذي
بيد
الذي
قد
ذاب
ياساً
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فخـاض
بشـعره
فـي
كـل
بحـرِ
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