بـأن
الرشـاد
وقـد
بـدا
لي
المنهج
|
فعلام
أعــــدل
عنهمــــا
وأعـــرج
|
وإلــى
مــتى
فـي
كـل
ليـل
غـوايه
|
أحــدو
ركــابي
فــي
دجـاه
وأدلـج
|
مـا
لـي
ومـا
للغيـد
يصـبي
مهجتي
|
منهــا
الســوار
وقرطهـا
والدملـج
|
ويهجنـــي
منهـــا
قـــوام
أهيــف
|
ويصـــيبني
ذاك
اللحيـــظ
الأرعــج
|
وإذا
هفــا
بــرق
الثنايـا
أرسـلت
|
وطـــف
المـــدامع
ديمــة
تتثجــج
|
وكــأن
قلــبي
فــي
جنــاحي
طـائر
|
مهمــا
يـدا
ذاك
النقـا
المـترجرج
|
علمــت
سـعاد
بـأن
قلـبي
قـد
سـلا
|
ونهــاي
عنهــا
قــد
غــدا
يتحـرج
|
ثــم
اعتراهــا
مــن
ســلوى
شـبهة
|
مــن
وقــد
وجــد
بالحشــا
يتأجـج
|
فـأتى
الخيـال
يخـوض
أغمـار
الدجى
|
مـــن
نحوهـــا
متجسســـا
يتــدرج
|
وســرى
لـدى
كثـب
الأرجـاع
فالغضـا
|
وقــد
اســتبان
الصـبح
ريـح
سجسـج
|
وغــدت
رفــاقي
مــن
كراهـا
سـجدا
|
فــوق
الرحــال
وكــل
جفــن
مربـج
|
طـرق
الخيـال
بـذي
الأضـا
مـن
بارق
|
وبــدا
لنــا
عـذب
العـذيب
ومنعـج
|
رح
يــا
خيــال
فمـا
سـعاد
بغيـتي
|
فقــد
اســتنار
لنــاظري
المنهــج
|
أفكلمـــا
لاحـــت
معـــالم
مطمــع
|
أعــدو
إليهــا
يــا
خيــال
وأدرج
|
عنــي
إليــك
فطالمــا
غـر
الفـتى
|
نــار
الحبــاحب
مــن
بعيـد
تسـرج
|
غــدرت
وكـان
الغـدر
شـيمة
مثلهـا
|
إن
الغــــواني
عهـــدهن
مبهـــرج
|
فلكـــم
غـــدا
بلــوا
زود
خــدها
|
لمــا
التقينــا
مــن
دمـى
يتضـرج
|
ولطالمـــا
قلــدت
نظمــى
جيــدها
|
عقــدا
كـدر
العقـد
بـل
هـو
أبهـج
|
ولطالمـا
انفقـت
عمـري
فـي
الهـوى
|
وأضــعت
مــدحي
فــي
ظبــاء
تمـرج
|
هلا
امتــدحت
المصــطفى
مــن
هاشـم
|
والمجتــبي
مــن
خيــر
فحـل
ينتـج
|
فــــالنظم
إلا
فــــي
حلاه
عاطـــل
|
والمــــدح
إلا
فــــي
علاه
يســـمج
|
سامى
الفخار
إذا
الملا
عقدوا
الحبي
|
زاكــى
النجــار
وبــالعلاء
متــوج
|
خيــر
الخلائق
للطــرائق
قــد
سـما
|
فــوق
الــبراق
علــى
مطـاه
يعـرج
|
حـــتى
رأى
ذاك
الجمـــال
بمقلــة
|
مــا
شـان
منهـا
الطـرف
شـك
يخلـج
|
شــهدت
بمنصــبه
العــوالم
كلهــا
|
حيوانهـــا
وجمادهـــا
والعوســـج
|
والكــون
مــذ
ظهـرت
مخايـل
بعثـه
|
اضـــحى
كنشـــوان
غـــدا
يتهــزج
|
وعلتــه
مــن
بعــد
الكآبـة
بهجـة
|
فغـــدا
يميـــس
ونشـــره
يتــأرج
|
والأنبيـــاء
المرســـلون
وغيرهــم
|
مـــا
منهـــم
إلا
هـــداه
يتهـــج
|
فهــو
الـذي
كالشـمس
يشـرق
نورهـا
|
والأنبيـــاء
لـــه
جميعــا
أبــرج
|
ولكـــل
جمــع
فــي
أوان
ظهــورهم
|
مــن
نــوره
نهــج
عليــه
عرجــوا
|
ولـه
الشـفاعة
يـوم
يصـطلم
الـورى
|
مــن
هــوله
ويعــز
منــه
المخـرج
|
ولــه
الرجاحــة
والفصــاحة
كلهـا
|
ولــه
الصــباحة
والجــبين
الأبلـج
|
ولـــه
الملاحـــة
كلهــا
مجموعــة
|
وبحارهـــا
مـــن
حســـنه
تتمــوج
|
فالشـــعر
ليــل
والمحيــا
بــارق
|
والثغــر
اشــنب
والشــتيت
مفلــج
|
مفنــى
العفــاة
بوابــل
مـن
كفـه
|
والســــائلين
بســــائل
يتفجـــج
|
والــذكر
أعــرب
فـي
فصـيح
خطـابه
|
عــن
فضــله
ولــه
المقـام
الأثبـج
|
خصــم
العــدى
يـوم
الجـدال
بحجـة
|
برهانهــــا
كجــــبينه
يتبلــــج
|
نــم
انثنــى
يــوم
الجلاد
بصــارم
|
كـــالعزم
منــه
بالســنا
يتوهــج
|
مـردى
الكمـاة
إذا
تشـاجرت
القنـا
|
والنقـــع
اقتــم
والكمــى
مدجــج
|
وهــو
الــذي
ان
لاح
عــارض
غــارة
|
وأتــى
يخــوض
الحــرب
ليـث
أهـوج
|
وردت
حيــاض
المــوت
ســبق
خيلــه
|
ســـيان
منهـــا
حاســر
أو
مســرج
|
مــا
مــس
ظهــرا
مـن
جـواد
أعجـف
|
ذهبـــت
قـــواه
أو
ظليــع
يعــرج
|
إلا
وفـــات
الصـــافنات
إذا
عــدت
|
لا
بــل
غــدا
كالريــح
لمـا
تسـهج
|
لــولاه
مــا
طــابت
معــالم
طيبـة
|
وغــدت
تــزم
لهــا
القلاص
وتدلــج
|
ولمــا
تــولعت
الحــداة
بــذكرها
|
وغــدت
بهــا
فــي
كـل
حيـن
تلهـج
|
يـا
خـاتم
الرسـل
الكـرام
ومن
غدت
|
بمـــديحه
عقـــد
الكــروب
تفــرج
|
مـا
إن
ذكـرت
ذنـوب
دهـر
قـد
مضـى
|
إلا
وبـــت
بمـــاء
طرفـــي
انشــج
|
كلا
ولا
لاحــــت
بــــوارق
لمــــتى
|
إلا
غـــدوت
دمـــى
بــدمعي
أمــزج
|
أرجــو
شــفاعتك
الـتي
مـن
نالهـا
|
فــي
حشــره
فهـو
السـعيد
المبهـج
|
صــلى
عليــك
اللَـه
مـا
ركـب
نـوى
|
قصــد
الحجــاز
ومــا
تبـدى
هـودج
|
وعلــى
جميــع
الآل
والصـحب
الأولـى
|
أضــحى
بهــم
هــام
الزمـان
يتـوج
|