|
رأيــتُ
الفــتى
لا
يمـلُ
الأمـلْ
|
وإن
عمــل
الخيـرَ
مـلَّ
العمـلْ
|
|
ويــأمن
دهــراً
يــرى
مكــرَه
|
ويســمعُ
عــن
فتكــه
بــالأول
|
|
وهــلْ
طُــررُ
الصــبحِ
إلا
ظـبىً
|
وهــلْ
غُــررُ
الشـهبِ
إلا
الأسـلْ
|
|
أتحســبُ
دنيــاكَ
هـذي
عروسـاً
|
تهــادىْ
إليـك
وتهـدى
الجـذلْ
|
|
وأن
النجـــوم
عليهــا
حُلــىً
|
وأن
الــدياجى
عليهــا
جُلــلْ
|
|
وإن
أطلعـــتْ
شـــفقاً
خلتــه
|
علـى
وجنتيهـا
احمـرار
الخجلْ
|
|
ومــا
شـفق
الأفـق
لـو
أشـفقت
|
ســوى
مُهــجٍ
سـفكها
لـم
يـزلْ
|
|
وذاكَ
الغمــامُ
وتلـكَ
الـبروُق
|
دروع
تُشــــُّق
وقضـــبُ
تُســـلْ
|
|
إذا
أحسـنَ
الـدهر
يومـاً
أسـا
|
ء
إليــك
وإن
جـدَّ
يومـاً
هـزلْ
|
|
نحـــبُّ
الزمـــانَ
ولا
نتقـــي
|
ســطاه
وآباءنــا
قــد
قتــلْ
|
|
رمـاهم
عن
القوسِ
رميَّ
النجوم
|
بنبــلِ
مُطيــح
بهـا
مـن
نبـلْ
|
|
ومـا
حمـلَ
الرمـحَ
هذا
السماك
|
إلا
لقــــوم
عليهـــم
حمـــلْ
|
|
خليلــيَّ
أيــنَ
زمــانُ
الصـبا
|
وأيــنَ
الغـزالُ
وأيـنَ
الغَـزلْ
|
|
وهــلْ
كــانَ
إلا
كطيـف
الكـرى
|
ألــمّ
ومــا
حــلَّ
حــتى
رحـلْ
|
|
تـــذكرت
أيامنــا
بالســروج
|
وقـد
غفـل
الـدهرُ
فيمـن
غفـلْ
|
|
وقـد
طـرحَ
الحلـمُ
عنـا
العصا
|
فصــارت
لقــى
ورعيــا
همــلْ
|
|
وإمــا
نزلنــا
فَــبينَ
الظلال
|
وإمــا
مشــينا
فتحـت
الظلـلْ
|
|
نــرواحُ
بيــنَ
قيـانِ
الغصـون
|
ســمعاً
وبيــنَ
قيــان
الكِلـلْ
|
|
ونهصـرُ
قضـبَ
الأمـاني
اعتناقاً
|
ونقطــفُ
زهــرَ
القبــولِ
قُبـلْ
|
|
وقـد
كُنـت
أخشـى
الـوغى
خشية
|
علــى
بـاذلِ
الـودِّ
أن
يبتـذل
|
|
ومـا
كُنـت
أحـذر
سـمرَ
القنـا
|
كمـا
كُنـت
أحـذُر
سـمْر
المُقـلْ
|
|
وأيــن
قــدودٌ
لهــا
ناعمـاتُ
|
إذا
قُويسـت
مـن
قـدود
النخـلْ
|
|
قطعـتُ
الزمـانَ
بوصـلِ
الحسـانِ
|
فليــتَ
زمانــاً
قطعــتُ
اتصـلْ
|
|
وقلـتُ
لعـاذلتي
فـي
التصـابي
|
محــبُّ
التصــابي
عـدوُ
العـذلْ
|
|
فلمــا
بــدا
الشـيبُ
نبهننـي
|
بإعراضــهن
علــى
مــا
نــزلْ
|
|
فتــــاركتهن
لأنـــي
رأيـــتُ
|
خلال
المـــودّة
فيهـــا
خلــلْ
|
|
كــذاكَ
الحقـوقُ
إذا
لـم
تـوفَّ
|
فـــدعْها
ولا
تقتنــع
بالأقــل
|
|
وصـرتُ
أعـافُ
الصـبا
والمجـونَ
|
وربَّ
طبـــاع
تعـــافُ
العســل
|
|
ومـا
زيَّـن
اللهـوَ
إلا
الشـبابُ
|
ولا
حســـّن
الغــيَّ
إلا
الثمــلْ
|
|
يـدورُ
الزمـانُ
كـدور
الريـاح
|
فطــوراً
جنوبــاً
وطـوراً
شـمل
|
|
فيومــاً
يُعــزُّ
ويومــاً
يُــذل
|
فكــم
قـد
أعـزَّ
وكـم
قـد
أذل
|
|
ومـا
النـاسُ
إلا
كمثـل
النجوم
|
ومــا
طلــعَ
النجــمُ
إلا
أفـل
|
|
ومـا
المـرءُ
إلا
كمثـل
النبات
|
إلـى
النقـص
يرجع
مهما
اكتمل
|
|
فـإن
قلـتَ
هـل
للشباب
ارتجاعٌ
|
فخلـف
مـن
القـول
إن
قلـت
هل
|
|
تعــودُ
الـدياجى
إلـى
لونهـا
|
وليـــسَ
يعــودُ
شــبابٌ
نصــل
|
|
ويبْلـى
على
الروض
ثوبُ
الربيع
|
ولكــنْ
يُجــدَّد
مــن
ذي
قَبــل
|
|
أجــل
أجَــلُ
الــروض
مسـتأنف
|
ومــا
للصـّبا
بعـد
فـوت
أجـل
|
|
وآمــــرةٍ
بـــاطّلاب
الغنـــى
|
ولـم
تـدر
أن
الغنـى
قـد
حصَل
|
|
أبعـدَ
القناعـة
أرضـى
القنوع
|
فحــل
فالقناعــة
حسـبي
فحـل
|
|
ومــا
ذاكَ
إلا
لبخــل
الزمـانِ
|
فــربَّ
اقتنــاع
جنـاه
البخـلْ
|
|
فــإن
قيـلَ
ذا
كسـلٌ
قـلْ
نعـم
|
إذا
غلـبَ
اليـأس
كـان
الكسـلْ
|
|
ومـــا
نكلــتْ
همــتي
إنمــا
|
تـــبيّن
لــي
أن
حظــي
نكــلْ
|
|
ومـــا
كــلُّ
ســائلة
أعطيــت
|
مناهــا
ولا
كــلُّ
مُعطــى
سـألْ
|
|
ففـي
الرزق
ساوى
الذكي
البكي
|
وفي
الحين
ساوى
الجبان
البطلْ
|
|
ولكنــه
لــو
تكــون
الحظـوظ
|
بقــدر
العقـول
إذاً
لـم
أُبـلْ
|
|
علــى
أنــه
إن
تكــن
نـاظراً
|
فـــدعوى
العقــول
كلامٌ
معــلْ
|
|
يُعـرّى
عـن
العقـل
خلـق
كـثير
|
الصــــنائع
شـــتى
الحيـــلْ
|
|
وتُعـزى
العقـول
إلى
الناطقين
|
وبــاللّه
أكــثرهم
مــا
عقـلْ
|
|
فكــمْ
قــايس
منهـم
لـم
يقـس
|
وكــمْ
ناقــلٍ
منهـم
مـا
نقـلْ
|
|
ولــولا
النبــوةُ
ضــلَّ
الـورى
|
ومَـنْ
لـم
ير
النجم
بالليل
ضَلْ
|
|
وأحمــــدُ
أحمـــد
آتٍ
أتـــى
|
بخيــر
وخيــر
خيــار
الرسـل
|
|
هــوَ
المرتضـى
وهـوَ
المجتـبى
|
هــوَ
المصـطفى
وهـوَ
المنتخـل
|
|
فــأعظم
بملّتــه
فــي
الملـل
|
وأكــرم
بــدولته
فـي
الـدول
|
|
لقـــد
كــانَ
مولــدهُ
رحمــةً
|
ســقينا
بهــا
كـلَّ
وبـل
وطـل
|
|
لقـــد
كــان
مولــده
رحمــةً
|
أقمنــا
بهـا
بيـن
نهـرٍ
وظـلْ
|
|
لــه
المعجــزاتُ
الـتي
بيّنـت
|
لعيـن
البصـير
المُـزاح
العِلل
|
|
فمــنْ
قمــرٍ
شـقّ
حـتى
اسـتبا
|
نَ
مـن
بيـن
شـقيه
جـرمُ
الجبل
|
|
وإســـراء
روح
وجســـمٍ
معــاً
|
إلــى
حضـرة
القـدس
ذات
الأزل
|
|
إلــى
حيــثُ
لا
فلــكٌ
يسـتدير
|
إلــى
حيــث
لا
ملــكٌ
يســتقلْ
|
|
ولا
ســبق
الـدلو
فيـه
الرشـا
|
ولا
تبــع
الثـور
فيـه
الحمـلْ
|
|
ولا
المشـتري
فـي
ذُراه
اشـترى
|
ولا
زُحـــل
فــي
مــداه
زحَــلْ
|
|
وقـــابله
بالســلام
الجمــادُ
|
وأقبــل
يشــكو
إليـه
الجمـلْ
|
|
وحــنَّ
إليــه
غــداة
ارتقــى
|
علـى
المنبر
الجدعُ
حتى
انتقلْ
|
|
وصــدَّقه
الــذيبُ
لمــا
دَعـاه
|
وقـــالَ
أتشــهد
قــال
أجــلْ
|
|
وأهــدتْ
إليــه
عجـوز
اليهـو
|
دِ
شــاة
شــوتها
فلمــا
قبـل
|
|
نهتــه
الــذراع
وقــالت
لـه
|
ســُمِمت
فمــا
ضــرَّه
أن
أكــل
|
|
وجــادَله
المــزنُ
لمــا
دعـا
|
ودرَّ
لــه
الضــرعُ
لمــا
نـزل
|
|
وراعَ
قتـــادة
مـــن
عـــاره
|
بــأزرق
زَاحَــم
منــه
الكَلـل
|
|
فســـالتْ
علــى
خــدّه
عينُــه
|
ولكنّـــه
ردّهـــا
فــي
عجــل
|
|
فكــانت
كمــا
ذكـرَ
الواصـفو
|
نَ
أحســنَ
عينيـه
لمـا
اسـتقل
|
|
وأعطــى
عليَّـاً
لـواءَ
الفتـوح
|
وأبــرأ
عينيــه
لمــا
تفــل
|
|
وفــي
الغـارِ
كـانتْ
لـه
آيـةٌ
|
بنســـج
عنـــاكبهِ
اذْ
دخـــل
|
|
وقـد
سـُبلت
عنـه
تلـك
الفجاجُ
|
وقـد
نفضـتْ
عنـه
تلـك
السـبل
|
|
ومـــرَّ
ســـراقةُ
فــي
إثــره
|
فسـاخَ
ومـا
فـي
الثرى
من
وحل
|
|
ومــا
أنقــذته
ســوى
دعــوةٍ
|
دعاهــا
لــه
بعــدِ
عهـد
وإل
|
|
وحســـبُك
أن
لـــه
معجـــزاتٍ
|
تزيـدُ
علـى
الألـف
فيمـا
نقـل
|
|
قبــــــل
ميلاده
أخــــــبرتْ
|
بــذاك
قريــشٌ
وعبــد
الأشــل
|
|
فقــومٌ
بمكــة
قــالوا
عســى
|
وقــومٌ
بيــثرب
قــالوا
لعـلْ
|
|
فمــنْ
قــائِل
نجمُـه
قـد
بـدا
|
ومــن
قــائلٍ
عصـرهُ
قـد
أطـل
|
|
وقـد
كـانَ
فـي
الفرسِ
من
قبله
|
علــى
عهـدِ
كسـرى
حـديثٌ
جلـلْ
|
|
وأخـــبر
ســـيف
بـــه
حــدّه
|
وأكــرم
مثــواه
حـتى
انفصـل
|
|
وكــانوا
إلــى
وجهـه
شـيقين
|
يقولــون
يــاليته
قــد
أظـل
|
|
فلمــا
أتــى
كــذّبته
قريــشٌ
|
وآذتــه
فــي
نفســه
فاحتمـل
|
|
وجــاءهم
بالكتــاب
المُــبين
|
فقـالوا
افتراه
وقالوا
انتحل
|
|
فقــل
فيهــم
يـوم
بـدر
وقـد
|
جزاهـم
بضـرب
الطلـى
والقُلـل
|
|
وجـــدَّل
فيهـــم
أبـــاجهلهم
|
وعقبــةَ
والنضـر
أهـل
الجـدل
|
|
وســلْ
فتــح
مكـة
عنهـم
وقـد
|
أتـاهمْ
فمـاتوا
لفـرط
الوجـل
|
|
وقـالوا
هبلنـا
ولـو
شـاء
لم
|
يغـــــن
عنهـــــم
هُبـــــل
|
|
ولكنّـــه
مــنَّ
مــن
الكريــم
|
وأعطــاهم
الأمـنَ
بعـدَ
الوهـل
|
|
وســلْ
عـن
هـوازنَ
إذ
خـادعوه
|
بــوادي
حُنيــن
وضـاقَ
المسـل
|
|
فجــالتْ
رجــالٌ
بهــا
جولــةً
|
وزالــت
بهـا
أرجـلٌ
مـن
زلـل
|
|
قليلاً
وهبــت
مـن
النصـر
ريـحٌ
|
لتســنيم
فــي
حافتيهـا
بلـل
|
|
ونــادى
فخــف
بـه
الصـابرون
|
ومــرَّ
النــداءُ
فعــالت
ثُلَـل
|
|
قـد
اقتحمـوا
عـن
ظهـور
المط
|
يّ
وازدحمـوا
فـي
صـدور
الأسـل
|
|
وطـاروا
إليـه
بشـهب
الرمـاح
|
كمثــل
الريـاح
تطيـرُ
الشـعل
|
|
وعــاق
الزحـامُ
فـألقوا
بهـا
|
وسـلُّوا
السـيوف
وعقـوا
الخلل
|
|
فكـمْ
ممتـطٍ
تـاركٍ
مـا
امتطـى
|
ومعتقــلٍ
تــاركٍ
مــا
اعتقـل
|
|
وجـــاءوا
إليــه
قليلاً
فلــمْ
|
يكــنْ
لهــم
بهــم
مــن
قِبَـلْ
|
|
كمــا
صــوبت
أعصــبٌ
أبصــرت
|
بضــاح
مـن
الأرض
سـرب
الحجـل
|
|
وأقبـــل
جبريــلُ
فــي
لمّــة
|
يَصـــُكُّ
وجـــوهَهم
مِــن
قَبــل
|
|
جنــود
بهــم
نُصـر
المسـلمون
|
فأمســـى
عــدُّوهم
قــد
خُــذل
|
|
فمـن
هـاربٍ
بـاتَ
يخشى
البياتَ
|
ومــن
هالــكٍ
ظـلَّ
تحـتَ
الأَثـل
|
|
وخلـــوّا
ذراريهـــم
للســبا
|
هنـــاك
وأمـــوالهم
للنفــل
|
|
وطــــافَ
بطـــائفهم
جيشـــُه
|
وفلُّهــم
فـي
الـذرا
قـد
وقـل
|
|
فبـاتوا
وقـد
سـمر
السـيف
من
|
ذيــولهم
حيــثُ
بــاتَ
الوعـل
|
|
وأصــبحَ
ديــنُ
الهـدى
ظـافراً
|
يُــثير
الــترابَ
بــذيل
رفـل
|
|
ومـن
بعـدها
أقبلـوا
مصـلحين
|
وقــد
أمَّلــوه
فنـالوا
الأمـل
|
|
وردَّ
إليهـــــم
ذراريهـــــم
|
ولـــولا
المقاســمُ
ردَّ
الإبــل
|
|
فعـــال
عطـــوف
رؤوف
رحيــم
|
كريــم
إذا
قــال
قــولاً
فعـل
|
|
صـــفوحٌ
إذا
أذنبــوا
واصــلٌ
|
إذا
قطعـــوا
مُحســن
لا
يمــل
|
|
جــوادٌ
جريــءٌ
تهــون
عليــه
|
الألـوف
إذا
مـا
التقى
أو
بذل
|
|
وليـــسَ
يجــادلُ
مــن
مبطــلٍ
|
وليـــس
يجالــده
مــن
بطــل
|
|
وكــمْ
مــن
غــزاةٍ
وبعـث
لـه
|
أذل
بهـا
اللّـه
مـن
قـد
أضـل
|
|
فأمـا
اليهـودُ
فلـم
تـألُ
فـي
|
أذاه
ولا
قصـــّرت
فـــي
حيــل
|
|
فــأنزل
منهــمْ
بنـي
قينقـاع
|
بقــاع
وكــانوا
بأسـنى
محـل
|
|
وأجلاهـــم
فجلـــوا
آمنيـــن
|
لأجـــل
شـــفيعهم
المقتبـــل
|
|
وأمـــا
النضـــيرُ
فلا
نضــرت
|
وجـــوهُهم
أهــل
كيْــدِ
وغِــل
|
|
ترامــوا
إلـى
قتلـه
عـازمين
|
فعــاجلهم
بعــد
طـول
المهـل
|
|
وأنزلهـــم
مـــن
صياصـــيهم
|
وأزعجهـــم
فـــي
هــوانِ
وذُل
|
|
وبــــالقرظيين
حــــلَّ
البلاءُ
|
وحــقّ
بهــم
حينهــا
أن
يحـل
|
|
لأنهـــم
ألّبـــوا
المشــركين
|
عليــه
فشــدّوا
إليـه
الرحـل
|
|
وجـاءوا
إلـى
الحرب
من
أجل
ذ
|
لـك
فـوقَ
الصـعاب
وفوق
الذلل
|
|
ففضــّهم
اللّــه
بعـدَ
اجتمـاع
|
وبـــدّد
جمعَهـــم
المحتفـــل
|
|
وجــازى
قريظــة
بالسـيف
لـم
|
يفــت
مــن
رجـالهم
مـن
رحـل
|
|
وأخبـــار
خيـــبر
معلومـــة
|
وإنــي
خــبير
بهــا
إن
تسـل
|
|
تـــولاهم
بالحصــار
الشــديد
|
فحلّــت
بهــم
عقـدة
لـم
تحـل
|
|
فقــالوا
نقــرُّ
علــى
أننــا
|
لكـــم
عـــاملون
ولا
ننتقــل
|
|
ومــن
بعــدَ
هــذا
خلا
وجهُــه
|
لمكــة
اذ
كــان
فيهــم
شـُغل
|
|
فطـاعَ
لـه
الشـركُ
طوعَ
الشِراك
|
وصــارتْ
يهــودٌ
لــه
كـالخول
|
|
وأنجــــز
ربُــــك
ميعـــادَه
|
وأصـبحَ
ديـنُ
الهـدى
قـد
كمـل
|
|
ولـم
يبـقَ
فـي
الأرضِ
شرك
بعهد
|
ســوى
السـيف
أو
سـنةِ
تمتثـل
|
|
وبلّـــغ
عـــن
ربّــه
مُنــذراً
|
وفصــّل
للفهــم
تلــك
الجمـل
|
|
ولــم
يبــقَ
للنـاس
مـن
حجّـة
|
علـى
مـن
براهـم
تعـالى
وجـل
|
|
فحينئذٍ
خصـــــــّه
ربُّــــــه
|
بتخييــره
فــي
رحيــل
وحَــل
|
|
فمــا
اختــار
إلا
رفيقـاً
علا
|
ولا
اعتــام
إلا
جــواراً
فضــل
|
|
فيــا
حســرةً
حسـرتْ
عـن
ذراع
|
وصــارعت
الصـبر
حـتى
انجـدل
|
|
ويــا
كربــةً
كربـت
أن
تـذوب
|
لهــا
الراسـياتُ
بحـر
الغلـل
|
|
ويــا
لوعـةً
أولعـت
بـالقلوب
|
ولا
قلـــبَ
إلا
بهـــا
يشــتعل
|
|
ويـا
سـيّدَ
النـاس
أنت
الشفيع
|
وأنـت
العمـاد
إذا
العبـد
زل
|
|
وأنـت
الرجـاءُ
غـداة
المخـاف
|
وأنــت
الأمــانُ
غـداةَ
الوجـل
|
|
فصــلّى
عليــك
إلــه
السـماءِ
|
صــــلاةً
مُضــــاعفةً
تتصــــل
|
|
وصــلّى
عليــك
إلــه
السـماء
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صــلاةً
مــدى
الـدهر
لا
تنفصـل
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صــلاةً
تطيــبُ
بهــا
الشـرفاتُ
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إذا
نفحـــت
وتطيـــبُ
الأُصــُل
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