أهـوِنْ
بمـا
يُبكـي
عيون
الباكي
|
إن
كـان
مـا
يبكيـه
غيـر
نواكِ
|
يـا
مصر
لا
أنساك
ما
طال
المدى
|
وإخـال
مـا
في
الناس
من
ينساكِ
|
للـه
اثنـا
عشـر
عامـاً
قد
مضت
|
ألحــق
وازرنــي
بهــا
وهـواك
|
اشــتاق
أخـواني
بينـك
وإنمـا
|
يشـتاق
مـن
صـافاك
مـن
صـافاك
|
قـد
كـان
لـي
ذكـر
بأرضك
سالف
|
لا
النيــل
بجهلــهُ
ولا
هرمــاك
|
أيـام
انطقنـي
واسـمعك
الصـبا
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وغـدوتُ
طيـرك
إذ
غـدوت
أراكـي
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وإذا
الإلـه
قضـى
بوصـلك
بعدذا
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فلا
مســحن
وجهــي
ببعـض
ثـراك
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علـم
الزمـان
قلاه
ليـس
يـذلني
|
فســـعى
يحـــاول
ذلــتي
بقلاك
|
ولئن
حييـت
علـى
نـواك
فإنمـا
|
أحيــا
لآمــالي
بــأن
ألقــاك
|
وأرى
كــبيرات
الخطـوب
صـغيرة
|
وأرى
هلاكـــي
لا
أخــاف
هلاكــي
|
وتخــاذل
الأنصـال
عنـي
زادنـي
|
عزمـاً
فجـد
مـع
الزمـان
عراكي
|
زادت
تبــاريحي
فــزدت
تطربـاً
|
وشـكا
سـواي
فعبـت
وجد
الشاكي
|
لـو
أن
مـن
شدوا
قيودي
حاولوا
|
يومـاً
فكـاكي
مـا
رضـيت
فكاكي
|
قـد
سـرّك
الدهر
العجيب
وساءني
|
فضـحكت
أنـت
وبـت
وحدي
الباكي
|
الهـاك
بعدي
بالجديد
من
المنى
|
يـا
ليـت
ألهـاني
كمـا
ألهـاك
|
وتفنـن
الشـعراء
فيـك
فأبدعوا
|
لـو
كنـتُ
حاضـر
أمرهـم
لكفـاك
|
يأتيــك
منـي
مـا
تجـدد
خـاطر
|
شــعر
يكــاد
بــه
يـرف
هـواك
|
أجنيـه
مـن
روض
الشبيبة
ناضراً
|
هــذا
جنـاي
وأنـت
كيـف
جنـاك
|
إن
كـان
هـذا
الصـوت
بحّ
بكبرة
|
فلطالمـــا
بشـــبابه
غنّـــاك
|
أو
كـان
قد
أمسى
اليراع
مثلما
|
فســـينبري
وســـكونه
لحــراك
|
يـا
عرش
نسل
الشمس
في
عليائهم
|
سامي
الكواكب
في
السماء
وحاكي
|
هـل
فـي
البرية
مثل
نيلك
منهل
|
أم
فـي
البريـة
مـن
ربى
كرباك
|
أنـت
الـتي
آخـاك
منـذ
منـاوس
|
قلــب
الشــجاع
وحجـة
السـفاك
|
وورثـت
نجـدتها
التي
ثأرت
بها
|
إيــزس
أمــك
أوزريــس
أبــاك
|
النـاس
قـد
كلفـوا
بحبـك
كلهم
|
وتنــازعوك
ومــن
حـواك
حـواك
|
أمســى
صــعيدك
جنـة
لملـوكهم
|
وغـــدت
ســـماؤك
جنــة
الأملاك
|
تـالله
أعجزهم
نظيرك
في
الثرى
|
فليطلبــوه
هنــاك
فــي
الأفلاك
|