فـي
نصـرة
الحـق
تصدق
الخطب
|
يـا
دهـر
فاسمع
لتشهد
الكتب
|
اليــوم
جنــد
الأقلام
غالبـة
|
لا
البيض
تغني
عنها
ولا
القضب
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إسـتوثق
اليـأس
مـن
مواضـعه
|
هــذي
نفـوس
كالنـار
تلتهـب
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وعــاد
صـرف
الزمـان
متضـعاً
|
وهـادنت
بعـد
حربهـا
النـوب
|
فلينهـض
الشـرق
أهـل
نجـدته
|
قـد
آن
أن
ينهضوا
وأن
يثبوا
|
اليـوم
نبني
ما
غيرنا
هدموا
|
وفـي
غـد
نسـترد
مـا
سـلبوا
|
إن
الحيـاة
الـتي
نجـن
بهـا
|
راحتنــا
كلنــا
بهــا
تعـب
|
لـــولا
بلاد
عرفتهــا
وطنــاً
|
لم
أطلب
المجد
مثل
من
طلبوا
|
تفـديك
نفسـي
ومـا
يلـم
بها
|
يـا
مهـد
آبـائي
الالى
ذهبوا
|
أبكيـك
أرثيـك
مـا
حييت
وإن
|
مــت
فروحــي
عليــك
تنتحـب
|
قـال
الأعـادي
فينـا
مقالتهم
|
قــد
شـهد
اللـه
أنهـا
كـذب
|
ليـس
العـداء
الذي
نرى
عجباً
|
وإنمــا
ودهــم
هــو
العجـب
|
إلا
يزعهــم
عــن
زورهـم
أدب
|
فإننــــا
وازع
لنـــا
الأدب
|
ومــن
لــه
فـي
هجائنـا
ارب
|
فمــا
لنــا
فـي
هجـائه
أرب
|
لـن
يغلبـوا
الحق
في
معاشره
|
من
غالبوا
الحق
قبلهم
غلبوا
|
مـا
أزهـد
النـاس
إذ
ترغبهم
|
وأطمـع
النـاس
إن
هـم
رغبوا
|
هـم
يطلبون
الخسيس
إن
حرموا
|
ويسـأمون
النفيـس
إن
وهبـوا
|
وشــقوة
الحـر
بينهـم
عظمـت
|
إذا
أتـى
ناصـحاً
لهـم
غضبوا
|
الشـر
حـي
يـا
صدور
قد
كشفت
|
لـك
الخـوافي
وزالـت
الحجـب
|
ويـا
قلـوب
الأحـرار
لا
تجـبي
|
إن
قلــوب
الاحــرار
لا
تجــب
|
للحـــق
رمـــح
ســنانه
ذرب
|
وصــارم
فــي
حديــده
شــطب
|
كلاهمـــا
ضــربه
لــه
نفــذ
|
فلا
يقـــي
مغفـــر
ولا
يلــب
|
إنــا
لقـوم
إن
يختلـف
نسـب
|
مـا
بيننـا
فـالعلى
لنا
نسب
|
لـم
يقطـع
الدهر
بيننا
سبباً
|
إلا
وقــد
مــد
بيننــا
سـبب
|
يـا
عصـر
عصر
العلوم
هل
أمل
|
فيـك
لأهـل
النهـى
فيرتقبـوا
|
شموســك
اليـوم
غيـر
ثابتـة
|
تبــدو
قليلاً
لنــا
فتحتجــب
|
مــا
ضـرها
لـو
تظـل
مشـرقة
|
وتنجلـي
عـن
سـنائها
السـحب
|
لا
بــد
للمجــد
مـن
معـاودة
|
يا
مجد
عد
فالكرام
قد
طلبوا
|