أخـا
النصـح
دع
لـومي
وطول
عتابي
|
فقــد
آن
أن
أُرضـى
النهـى
بمتـابِ
|
مضـى
زمـن
أقلعـتُ
فيـه
عـن
الحجا
|
وصــوبت
رأيــاً
كــان
غيـر
صـواب
|
كذا
المرء
في
عهد
الشباب
أخو
هوى
|
شــديدُ
نــزوعٍ
مــن
هــوىً
وشـباب
|
وقــد
يطـأ
المـرءُ
الأسـنة
مكرهـا
|
ويركــب
عنــد
اليــأس
شـرَّ
ركـاب
|
المجـــــد
المؤثـــــل
خففــــى
|
سـهامك
عـن
قلـبي
فحسـبي
مـا
بـي
|
هلــمَّ
نــدافع
جهـدنا
عـن
بلادنـا
|
دفـــاعَ
كمــاة
أو
ضــراغم
غــاب
|
كــذلكم
الرئبــال
تعــروه
سـورةٌ
|
إذا
احتُــلَّ
يومــاً
خيســه
بـذئاب
|
ومــن
فقــد
اسـتقلاله
عـاش
هيّنـا
|
يســام
صــنوفاً
مــن
أذىً
وعــذاب
|
هلـمَّ
نخـض
غمـر
الصعاب
إلى
العلى
|
ونفــرق
مــن
الإِقــدام
كـل
عبـاب
|
عسـى
يسـعد
الجـد
الـذي
مال
نجمه
|
وتشــرق
شــمس
المجـد
بعـد
غيـاب
|
ألــم
نــك
كاليونـان
أهلاً
لمجلـس
|
يــدافع
عنــا
عنــد
كــل
مصــاب
|
ألم
نك
كالبلغار
والصرب
في
الحجا
|
وأخصـــب
منهــم
اخضــرار
جنــاب
|
ألـم
نـك
أرقـى
مـن
ممالك
لم
تقم
|
لــــدأبٍ
ولــــم
تهمـــم
لأيّ
طلاب
|
أليســـت
بلاد
النيـــل
أوَّل
أمــةٍ
|
أمــاطت
عــن
العرفـان
كـل
نقـاب
|
علــــومٌ
وأخلاقٌ
وفضــــلٌ
وهمـــةٌ
|
وتــــذليلُ
أوعـــارٍ
ودكُّ
صـــعاب
|
فحتــام
ذيــاك
العميــد
ينوشـنا
|
بناجـــذ
ســـرحان
وظفــر
عقــاب
|
رمـى
نسـوة
الإسـلام
بـالعجز
عامداً
|
وقــد
ودَّ
أن
ينزعــن
كــل
حجــاب
|
وفـي
كـل
يـوم
نُبتلـى
مـن
يراعـه
|
بأفــك
اذا
عُــدَّ
العجــابُ
عجــاب
|
فطــوراً
يعادينــا
بتقريـر
كاشـح
|
وطــوراً
يناوينــا
بنشــر
كتــاب
|
ويــا
ليتــه
ردَّ
الــدليل
بمثلـه
|
وخفَّـــض
مــن
طعــن
لــه
وضــراب
|
إذا
عجـز
المقهـور
عـن
قهـر
خصمه
|
لـدى
البطـش
لـم
يلجـأ
لغير
سباب
|
مضــى
شـاكياً
ضـعفاً
عـراه
ومهجـة
|
علــى
قــرب
توديــع
ووشـك
ذهـاب
|
فمـا
بـاله
قـد
قـام
بعـد
ممـاته
|
يعـــضّ
قلــوب
المســلمين
بنــاب
|
ألا
أيهـا
الشـيخ
الـذي
شـاب
رأسه
|
فســـوَّدهُ
مـــن
ظلمـــه
بخضـــاب
|
دع
الافــك
لا
تركــن
اليـه
فانمـا
|
عقــاب
الــذي
يجنيــه
شـرُّ
عقـاب
|
قمــتَ
بـوادي
النيـل
حـتى
سـقيته
|
مـــرارة
صـــبر
لا
يطــاق
وصــاب
|
وغـادرته
يشـكو
إلـى
اللَـه
مـابه
|
وينــزو
بقلــبٍ
مــن
أذاك
مــذاب
|
دعــا
ربــه
حــتى
أجــاب
دعـاءَه
|
وقــد
كــان
قبلاً
فيـك
غيـر
مجـاب
|
فســيان
سـخط
فـي
كتابـك
أو
رضـى
|
إذا
كــان
ترحــال
بغيــر
إيــاب
|
حسـبناك
نسـراً
قـد
هممنـا
بزجـره
|
إذا
بــك
يــوم
الـبين
شـرُّ
غـراب
|
خرجــتَ
علــى
رغــم
وكـان
تشـفياً
|
دعــاء
الــورى
ربِّ
ارمــه
بشـهاب
|
ولونـــك
مصـــفرٌ
ورأســك
مطــرقٌ
|
وطرفـــك
محســـورٌ
ووجهــك
كــاب
|
وعينــك
تبكــي
عـرش
ملـك
نُزعتـهُ
|
وترنـــو
لنيـــلٍ
مــترعٍ
وهضــاب
|
نـآى
النيـل
حـتى
صـرت
أشوق
مولع
|
إلــى
رشــفاتٍ
مــن
لمــاه
عِـذاب
|
وســاءك
نــأي
القصـر
وهـو
مشـيد
|
علـــى
هضـــباتٍ
غضـــةٍ
وروابــي
|
ثــويت
بــه
تختــال
بيـن
خمـائل
|
وبيـــن
عـــراصٍ
شســـع
ورحـــاب
|
فصـــار
كحلــم
أو
كــآل
حســبته
|
مــن
الجهـل
مـاءً
أو
كلمـع
سـراب
|
ومـــرَّت
ليــالٍ
لا
تعــود
كأنهــا
|
ســـنوح
شــبابٍ
أو
مــرور
ســحاب
|
تمـنُّ
علـى
النيـل
السـعيد
بـثروة
|
وهـل
كنـت
فـي
واديـه
غيـر
مـراب
|
عــذرتك
إن
بــرَّدت
نــارك
بالـذي
|
تلفقـــه
مـــن
خطبـــةٍ
وخطـــاب
|
وإن
قلـت
لـي
كيـف
اطرحـت
مدائحي
|
أكنــت
تمــارى
عنــدها
وتحــابى
|
أجبتــك
لــي
ديـن
أثـار
عـواطفي
|
وهيَّــج
مــن
قــوم
عليــك
غضــاب
|
ولا
خيــر
فيمــن
لا
يثــور
لـدينه
|
ولــو
بيــن
أســياف
ووخـز
حـراب
|
بنـى
مصـر
خلـوا
كـل
شـيخ
مذبـذبٍ
|
لــه
نحــو
إيقـاظ
الحقـود
تصـاب
|
ولا
تقــرأوا
صـحف
الضـلال
وشـهروا
|
بهــا
بيــن
أخــدان
لكـم
وصـحاب
|
وأمـوا
حمـى
العبـاس
يعطـف
عليكم
|
بقلــــب
غيــــورٍ
للتخـــاذل
آب
|
مليــك
لـدى
أهـل
السياسـة
مصـدر
|
لكـــل
ســـؤالٍ
أو
لكـــل
جــواب
|
فــان
لــم
ينـاقش
خصـمه
فلحكمـة
|
يـــؤخره
عمـــداً
ليـــوم
حســاب
|
أيـا
واحد
الدنيا
عُلِ
القوم
تغتنم
|
أجـــلَّ
جــزاءٍ
فــي
أبــرّ
ثــواب
|
ورحمــاك
يـا
عبـاس
ممـن
قيـودهم
|
أحـــاطت
بأعنــاق
لنــا
ورقــاب
|
كفـاك
مـن
ابـن
النيـل
في
كل
شدةٍ
|
اذا
قــال
مــن
ضـيمٍ
اليـك
مـآبي
|