تبســم
فــي
ليــل
الشـباب
مشـيب
|
فأصــبح
بــرد
الهـم
وهـو
قشـيب
|
وأنكـرت
مـا
قـد
كنتمـا
تعرفانه
|
وقـد
يحضـر
الرشـد
الفـتي
ويغيب
|
ومـن
شـارف
الخمسـين
عامـاً
فإنه
|
وإن
عـاش
بنـي
الأهـل
فهـو
غريـب
|
ومـا
أبقـت
الـدنيا
علينا
وإنما
|
ســهام
المنايــا
مخطــئ
ومصـيب
|
علــى
أن
أنفــاس
الحيـاة
شـهية
|
وأرواحنــا
تغنــى
بهــا
وتـذوب
|
تجرعنــا
الأيــام
كأســاً
مريـرة
|
وظاهرهــا
يحلــو
لنــا
ويطيــب
|
ونــزري
عليهــا
جاهـدين
بألسـن
|
تخالفهـــا
بالاعتقـــاد
قلـــوب
|
كــأن
عقــول
الخلـق
سـرب
حمـام
|
تحــوم
علــى
أحواضــها
وتلــوب
|
وكـم
ضـاع
تدبير
الفتى
وهو
حازم
|
ومــالت
بــه
الآمـال
وهـو
لـبيب
|
وكــم
غــره
منهـا
سـراب
بقيعـة
|
تصــدقه
العينــان
وهــو
كــذوب
|
ومـن
عـاش
في
ظل
القناعة
لم
يبل
|
جفـــاه
عــدو
أو
جفــاه
حــبيب
|
خليلــي
قــولا
لليــالي
نيابــة
|
ومــازال
خـل
المـرء
عنـه
ينـوب
|
تغيـر
بعـد
الصالح
العيش
فاغتدت
|
محاســـن
أيـــامي
وهــن
عيــوب
|
رضـيت
رضـى
المغلوب
عن
أخذ
ثأره
|
ولــي
غضـب
فـي
النائبـات
أديـب
|
دعـوتكم
أن
تصـفوا
مـن
نفوسـكم
|
فهــل
منكـم
عنـد
الـدعاء
مجيـب
|
وإلا
فمـا
عنـدي
سـوى
الصبر
قدرة
|
ألا
إن
صـــبر
الصــابرين
قريــب
|
وغيضـت
مـن
زهـر
الـدموع
طوالعاً
|
لهـا
فـي
غـروب
المقلـتين
غـروب
|
أيجــدب
خـدي
مـن
ربيـع
مـدامعي
|
وربعــي
مــن
نعمـى
يـديه
خصـيب
|
وتـذهب
عنـي
لوعـة
الحـزن
والأسى
|
ولــي
جيئة
فــي
رزقــه
وذهــوب
|
وأقصـرت
مـن
نـدبي
لـه
كـل
ساعة
|
وفــي
كبـدي
الحـرى
عليـه
نـدوب
|
أينسـى
وفـي
العينيـن
صـورة
وجه
|
ه
الكريـم
وعهـد
الانتقـال
قريـب
|
أرانــي
إن
حــاولت
نظـم
قصـيدة
|
فلــي
غــزل
مــن
ذكــره
ونسـيب
|
يميـل
بـي
التشـبيب
نحـو
رثـاته
|
كمـا
مـال
طوعـاً
في
القياد
جنيب
|
وتجــذبني
أغـراض
وجـدي
ولوعـتي
|
إليــه
وأغــراض
النفــوس
ضـروب
|
فهـل
عنـده
أن
الـدخيل
من
الجوى
|
مقيــم
بقلــبي
مـا
أقـام
عسـيب
|
وإن
برقــت
ســني
لــذكر
حكايـة
|
فـــإن
فــؤادي
مــاحييت
كئيــب
|
ولـو
أنصـفت
نعماك
ما
طعم
الكرى
|
ولا
باشــرت
ليــن
المهـاد
جنـوب
|
ولـولا
الحيـا
مـن
دولـة
ناصـرية
|
لمــا
غفــرت
للنائبــات
ذنــوب
|
طلعـت
طلـوع
الشـمس
والبدر
غائب
|
فعفــى
طلــوع
مــا
جنـاه
مغيـب
|
وأقبلــت
الــدنيا
إليـك
تنصـلاً
|
تقبــل
أذيــال
الــثرى
وتتــوب
|
ولا
منكــر
إن
ثـاب
عـازب
رأيهـا
|
فقــد
تعــزب
الآراء
ثــم
تثــوب
|
ومــا
زلــت
غفـاراً
لكـل
جريمـة
|
تضــيق
بــاع
الحلـم
وهـو
رحيـب
|
لـك
الـدهر
عبـد
والملـوك
رعيـة
|
تعـــاقب
قومــاً
تــارة
وتــثيب
|
وهــذا
قميــص
لــو
سـواك
أراده
|
غـدا
وهـو
مـن
ثـوب
الحياة
سليب
|
وقطــت
بــأطراف
الرمـاح
مطـارف
|
عليــه
وغطــت
بالســيوف
جيــوب
|
أبـت
ذاك
مـن
أبنـاء
زريـك
عصبة
|
صـــباح
عـــدو
صـــحبته
عصــيب
|
ملـوك
ترينـا
السلم
والحرب
كلما
|
تجلـــى
جلــوس
عنــدهم
وركــوب
|
وأنـت
سـنان
فـي
القناة
التي
هم
|
جميعــاً
أنــابيب
لهــا
وكعــوب
|
بـك
التـأمت
بعـد
انصداع
شعوبهم
|
قبـــائل
مــن
آمــالهم
وشــعوب
|
تحمــل
أثقــال
الـوزارة
عنـدهم
|
أغـــر
بحــد
الحادثــات
لعــوب
|
يـرى
غـائب
الأشـياء
حـتى
كأنمـا
|
تنـاجيه
مـن
فـرط
الـذكاء
غيـوب
|
يــروع
قلوبـاً
أو
يـروق
نـواظراً
|
بــوجه
كـثير
البشـر
وهـو
مهيـب
|
يليــن
لنـا
طـوراً
ويصـلب
تـارة
|
كــذاك
القنـا
يهـتز
وهـو
صـليب
|
نهضــت
بهـذا
الأمـر
نهضـة
حـازم
|
يســكن
قلــب
الحـزم
وهـو
نهيـب
|
وقــام
بتــدبير
الزمـان
وأهلـه
|
خــبير
بــداء
المعضــلات
طــبيب
|
وســـومتها
ملمومـــة
ناصـــرية
|
تكــف
جمــاح
الـدهر
وهـو
شـبوب
|
إذا
شـجرات
الخـط
فيهـا
تشـاجرت
|
فليـــس
لريـــح
بينهــن
هبــوب
|
يليــق
بـك
الملـك
العظيـم
لأنـه
|
أخ
لــك
مــن
دون
الـورى
ونسـيب
|
تفرعتهــا
مــن
دولــة
صــالحية
|
نمـا
فـي
العلـى
أصـل
لها
وقضيب
|
وقـد
جمعـت
فيـك
السـيادة
كلهـا
|
وغصــنك
مـن
مـاء
الشـباب
رطيـب
|
فمـا
شـيمة
للمجـد
إلا
وقـد
غـدا
|
لهــا
منــك
حــظ
وافــر
ونصـيب
|
ســـماحة
كــف
لايــزال
نوالهــا
|
يعلــم
كــف
الغيــث
كيـف
تصـوب
|
وهيبــة
بـأس
لـو
أذمـت
بنانهـا
|
لشــرخ
شــباب
لــم
يرعـه
مشـيب
|
مـددت
بسـاط
العـدل
حـتى
تصاحبت
|
بعــدلك
شــاة
فــي
الفلاة
وذيـب
|
وباشــرت
أحكـام
المظـالم
حسـبة
|
لـك
اللـه
فيهـا
بـالثواب
حسـيب
|
تناهيت
في
الإنصاف
والعدل
فانتهت
|
عقــارب
مــن
جــور
لهــن
دبيـب
|
وسـاويت
فـي
ميـزان
عـدلك
بيننا
|
فخــاف
بريــء
واســتقام
مريــب
|
وأوجبـت
فـرض
الحـج
بعـد
سـقوطه
|
فأضــحى
لـه
بعـد
السـقوط
وجـوب
|
ويسـرت
قصـد
الـبيت
من
بعد
عسرة
|
فضــاقت
بحــار
بــالورى
وسـهوب
|
فللفلـك
فـي
طـامي
البحـار
تحدر
|
وللعيـس
فـي
بحـر
السـراب
رسـوب
|
وكـان
لـبيت
اللـه
فـي
كـل
موسم
|
عويــــل
علـــى
زواره
ونحيـــب
|
ينـادي
ملـوك
الأرض
شـرقاً
ومغرباً
|
ألا
ســـامع
يــدعى
بــه
فيجيــب
|
فلمـا
أتـت
أيامـك
الـبيض
لانقضت
|
وخطبتهــــا
للزمــــان
خطـــوب
|
بـذلت
عـن
الوفـد
الحجيـج
تبرعاً
|
مــواهب
لــم
يســمح
بهـن
وهـوب
|
سـبقت
بهـا
أهـل
العـراق
وغيرهم
|
وأنــت
إلـى
كسـب
الثـواب
وثـوب
|
تركـت
بهـا
فـي
الأخشـبين
نضـارة
|
وكــان
بــوجه
الأخشــبين
شــحوب
|
وحطــت
بـه
عـن
ذمـة
بـن
فليتـة
|
وذمـــة
أهــل
الأبطحيــن
ذنــوب
|
وأبقيتهـا
وقفـاً
على
البر
خالصاً
|
وفــي
بــر
قــوم
خــالص
ومشـوب
|
إذا
جـف
عـود
الـزرع
فهـي
مريعة
|
وإن
جــف
در
الضــرع
فهـي
حلـوب
|
وهنئت
عامــاً
لــو
أعـبر
عبـارة
|
غــدا
وهـو
مثلـي
فـي
علاك
خطيـب
|