الأبيات 17
كما تقفينَ على حدّ هذا اليقينِ العَلِيِّ | |
تململْتُ في حدّ شكّي | |
على شعرةٍ نتدرّجُ في الحُبِّ | |
نحملُ أيامنا المقبلاتِ | |
ونمضي حديثاً من الشوكِ والياسمينْ | |
عدونا | |
فما أسقطتنا الرياحُ | |
ولكن | |
سقطنا على صدرِ غفلتنا | |
كالفراشِ على النارِ | |
حتى انتبهنا حنيناً | |
تأجّجَ في غفلتينْ | |
سقيتُكِ بعضَ ندايَ | |
وأسقيتِني من نداكِ | |
فصرنا بهذا التساقي | |
وهذا الندى | |
ثغرَ عمرٍ تبسّمَ ما بينَ جوريّتينْ |