مـن
كـان
فـي
عقـل
وفي
انتباه
|
فلا
يــدين
غيــر
ديــن
اللــه
|
الـدين
فـاعلم
رأس
مال
المسلم
|
والربـح
معـدوم
إذا
لـم
يسـلم
|
فـــالقول
بــالحلول
واتحــاد
|
مقــال
أهــل
الزيـغ
والإلحـاد
|
كــالقول
بالعلــة
والطبيعــة
|
فهــو
مــن
العقـائد
الشـنيعة
|
وقـد
أقـام
اللـه
فينـا
علمَـا
|
أئمـــة
يبنــون
مــا
تهــدما
|
مثـل
الامـام
الشـيخ
بدرالـدين
|
ذي
العـزم
والرسـوخ
والتمكيـن
|
أدامــه
اللـه
لشـرع
المصـطفى
|
ودينــه
القـويم
سـيفاً
مرهفـا
|
وفــي
كتـاب
الصـادح
والبـاغم
|
تحـــاور
الطيــور
والبهــائم
|
نظـم
أبـي
يعلـى
نظـام
الـدين
|
بيّــن
فيــه
غايــة
النــبيين
|
رداً
علــــى
أولئك
الطغــــام
|
المنكريـــن
البعــث
للأجســام
|
جنيـــت
منــه
والتقطــت
دررا
|
وزدت
فيــه
بعــض
مــا
تيسـرا
|
ونصـــه
فـــي
ذلــك
الكتــاب
|
حـــدثني
شــيخ
مــن
الأعــراب
|
قـــال
خرجـــت
رائداً
لأهلـــي
|
وكــان
ذاك
العــام
عـام
محـل
|
فســرت
مــن
بيريـن
نصـف
ميـل
|
وقـــد
ضــللت
لقــم
الســبيل
|
وكنـــت
إذ
ذاك
غلامــاً
يفعــه
|
لكــن
قــواي
كلهــا
مجتمعــه
|
جســمي
جميــع
وجنــاني
حاضـر
|
مـاض
علـى
الهـول
جسـور
شـاطر
|
فعنــدما
أيقنــت
أنــي
جـائر
|
عــن
مقصـدي
قمـت
كـأني
حـائر
|
استرشـــد
الريــاح
والنجــوم
|
قــد
ســترتها
دونــي
الغيـوم
|
فلاح
لـــي
شــخص
قريــب
منــي
|
فــارتعت
مــن
ذاك
وسـاء
ظنـي
|
فخلتــه
الغــول
فجاشـت
نفسـي
|
لأنهـــا
لــم
تــك
أرض
أنســي
|
حـتى
إذا
مـا
اشـتد
منـه
خوفي
|
عقلــت
نضــوي
وجــذبت
ســيفي
|
فبــان
لــي
إذ
لمــع
الحسـام
|
وانجــــاب
عــــن
لألائه
الظلام
|
نخــل
وأثــل
فقصــدت
قصــده
|
وقلــت
أمســي
وأبيــت
عنــده
|
حـــتى
إذا
مـــاجئته
وجــدته
|
يهفــو
علــى
روض
كمـا
أردتـه
|
عيـــون
مــاء
وريــاض
أشــبه
|
تســمع
فيهــا
للطيــور
جلبـه
|
فقلـــت
هـــذا
منــزل
أنيــق
|
وأنــــه
بنجعــــتي
خليــــق
|
ثــم
عقلــت
نـاقتي
فـي
شـجره
|
ونلـت
مـن
بعـض
النخيـل
ثمـره
|
ثـــم
صـــعدت
نخلــة
لأهجعــا
|
فــي
رأسـها
مـن
الأذى
ممتنعـا
|
وانقشـع
السـحاب
عن
وجه
القمر
|
فبـان
لـي
مـا
كـان
يخفى
وظهر
|
وجـــاء
بــبر
وهزبــر
ونمــر
|
والـوحش
والطيـر
جميعـاً
تبتدر
|
والحشـــرات
رجلهــا
ودقهــا
|
مفتنــة
فــي
خَلقهــا
وخُلقهـا
|
وارتفــع
العنقـاء
فـوق
دلبـه
|
وهـو
أميـر
الطير
يبغي
الخطبه
|
فقــال
حمــدالله
خيــر
نطــق
|
وشـــكره
فــرض
مــبين
الحــق
|
الحمــد
للــه
علـى
مـا
خصـني
|
بـه
مـن
الخلـق
البـديع
الحسن
|
أفردنــي
مــن
لطفــه
وحكمتـه
|
بصــــورة
شـــاهدة
بقـــدرته
|
حــتى
لقــد
كـذب
بـي
الطغـام
|
وشـــك
فـــي
وجــودي
الانــام
|
لأنهـــم
خصــوا
بضــعف
وصــغر
|
فحســبوا
مثلهــم
كــل
الصـور
|
فــانكروا
مــا
خـرق
العـادات
|
وكـــذبوا
روايـــة
الـــرواة
|
فـان
يكـن
دينهـم
التكـذيب
بي
|
فليـــس
ذاك
منهـــم
بــالعجب
|
لأنهــم
قــد
كــذبوا
بالصـانع
|
وانكــروا
البعـث
ليـوم
جـامع
|
لجــوعهم
والجهــل
شــر
شـيمة
|
جـاءت
مـع
النـاس
مـن
المشيمة
|
فهــم
عبيــد
الحــس
والعيـان
|
وخصـــماء
العقــل
والبرهــان
|
لا
يقبلـون
شـاهداً
غيـر
النظـر
|
ولا
يطيعــون
العقــول
والفكـر
|
ومنهــم
مــن
يجحــد
الملائكـة
|
والجـن
أيضـا
والأمـور
الشائكة
|
كـذاك
لـو
لـم
ينظـروا
السماء
|
لأنكـــروا
النجــوم
والأنــواء
|
ســقف
رفيــع
فــوقهم
بلا
عمـد
|
مــا
فيــه
أمـت
شـائن
ولا
أود
|
وخيمـــة
ليــس
لهــا
أطنــاب
|
يعجــز
عــن
أوصـافها
الأطنـاب
|
وكــوكب
ينظــر
فــي
كـل
بلـد
|
كـــانه
مســـامت
كـــل
أحــد
|
لـو
فكـروا
في
جرم
هذا
المشرق
|
حـــتى
يــرى
بمغــرب
ومشــرق
|
فـــي
حالـــة
واحــدة
كــأنه
|
فوقــك
أو
عليــك
منــه
جنــه
|
والأرض
فيهــا
عــبرة
للمعتـبر
|
تخــبر
عـن
صـنع
مليـك
مقتـدر
|
تســقى
بمــاء
واحـد
أشـجارها
|
ونبعَــــةٌ
واحـــدة
قرارهـــا
|
والشـمس
والهـواء
ليسـت
تختلف
|
وأكلهـــا
مختلـــف
لا
يــأتلف
|
كـــذاك
كـــل
حيــوان
أصــله
|
مــن
نطفـة
وقـد
تفـاوت
نسـله
|
فإننــا
فـي
شـاهد
الحـس
نـرى
|
هــذا
أتـى
أنـثى
وهـذا
ذكـرا
|
وواحــد
تــراه
مثــل
العــاج
|
لونــــاً
وأخـــر
كليـــل
داج
|
لــو
أن
ذا
مـن
عمـل
الطبـائع
|
أو
أنــه
صــنعة
غيــر
صــانع
|
لـم
يختلـف
وكـان
شـيئاً
واحدا
|
هــل
يشـبه
الأولاد
الا
الوالـدا
|
تقـــول
لــو
أردت
الاســتدلالا
|
لفعـــل
غيــر
ربنــا
تعــالى
|
لــو
طبــخ
الطبـاخ
ألـف
قـدر
|
بالمــاء
واللحــم
وحـب
الـبر
|
ماجــاءه
مــن
بعضــها
سـكباج
|
ولا
قليــــــات
وســــــورباج
|
بــل
كلهــا
هريسـة
إذ
أصـلها
|
متفــق
لــم
يتفــاوت
أكلهــا
|
والشــمس
والهـواء
يـا
معانـد
|
والمــاء
والـتراب
شـيء
واحـد
|
فمـا
الـذي
أوجـب
ذا
التفاضلا
|
إلا
حكيــم
لــم
يــرده
بـاطلا
|
وزعمــوا
أن
النجــوم
صــانعة
|
وأنهــــا
ضـــائرة
ونافعـــة
|
قـد
كـذبوا
واللـه
فيما
زعموا
|
وعـن
سـبيل
الرشـد
ضلوا
وعموا
|
ثــم
الـدليل
الواضـح
المـبين
|
لفعــــل
رب
مــــاله
معيـــن
|
مــا
صــاغه
إمــام
أهـل
الأدب
|
بقــوله
المسـبوك
سـبك
الـذهب
|
فــي
ســاعة
يولــد
ألـف
ألـف
|
وحــالهم
نهايــة
فــي
الخلـف
|
فواحـــد
يمــوت
فــي
مكــانه
|
وواحــد
يعيــش
فــي
أقرانــه
|
وواحـــد
ذو
ثـــروة
تطغيـــه
|
وواحــــد
شــــبعته
تكفيـــه
|
وواحـــد
حـــبر
تقــي
ناســك
|
وواحـــد
غـــر
جهــول
فانــك
|
وواحــد
عبــد
ذليــل
مضــطهد
|
وواحـــد
حــر
مليــك
معتمــد
|
وواحـــد
فــي
خَلقــه
وخُلقــه
|
ريـح
الصـبا
أو
قمـر
فـي
أفقه
|
وواحـــد
ينـــوب
عــن
جهنــم
|
بــــوجهه
ورأســـه
المســـنم
|
وواحـــد
لكـــل
ظطــرف
ظــرف
|
وواحـــد
فـــظ
غليـــظ
جلــف
|
ألفـــاظه
غليظـــة
معجرفـــة
|
لا
يعمـل
الفـأس
بهـا
والمجرفة
|
وواحـــد
يفجـــاك
بالعيـــاط
|
كــــأنه
يضــــرب
بالســـياط
|
وواحــــد
كلامــــه
مُخـــافته
|
تــأمن
فــي
خطــابه
مخــافته
|
وواحـــد
إذا
ســـمعت
صـــوته
|
تتمنـــى
عـــن
قريــب
مــوته
|
وواحـــد
إذا
ســـمعته
صــوته
|
تخشـى
علـى
طـول
الزمـان
فوقه
|
وواحــد
فــي
صــوته
اللحّــان
|
كــأنه
القمــري
علـى
الأغصـان
|
وواحـــد
تســـدُّ
منــه
أذنــك
|
مـن
غيـر
أن
يعلمـك
أو
يؤذنـك
|
وواحـــد
يمشــي
وفيــه
ثِقَــل
|
كـــأنه
علــى
القلــوب
جبــل
|
لــو
أنـه
بالنيـل
يومـاً
مـرا
|
لصـار
فـي
الحـال
أجاجـاً
مـرا
|
فــاقرأ
عليـه
سـورة
الزلـزال
|
ينحـــط
عنــك
ثقــل
الجبــال
|
فــاقرأ
عليـه
سـورة
الزلـزال
|
لعلــــه
يــــؤذن
بـــالزوال
|
وواحــد
فـي
أكلـه
يرعـى
الأدب
|
وواحــد
يأكــل
مــا
هــب
ودب
|
وواحـــد
فــي
ســمته
ســلطان
|
وواحـــد
فــي
طيشــه
شــيطان
|
وواحــــد
أحموقــــة
شـــموس
|
وواحـــــد
مــــدبر
ســــؤوس
|
دواء
كـــل
أحمــق
أن
يُتركــا
|
إن
رضــاه
غايــة
لــن
تـدركا
|
وواحـــد
أســـعد
مــن
عــروس
|
وواحـــد
أســـأم
مــن
بســوس
|
وواحــد
مثــل
غــراب
الــبين
|
يخـــبر
بالشـــر
وكــل
شــين
|
وواحــد
إن
جــاء
مــن
يناصـح
|
يظنـــه
قرنـــاً
بــه
يناطــح
|
وواحـــــد
بصــــره
حديــــد
|
مرمــامه
إذ
يرمــي
بـه
بعيـد
|
وواحــــد
بصــــيرة
وبصـــرا
|
أعمــى
يــراه
غيــره
ولا
يَـرى
|
وواحــد
أعشــى
عشــى
الخفـاش
|
يناطــح
الحيطــان
وهــو
مـاش
|
وواحــد
يجــول
مثــل
قســورة
|
يــوم
الــوغى
ميمنـة
وميسـرة
|
وواحــد
كــالألف
فـي
الشـدائد
|
والألــف
فيهــا
لا
يفـي
بواحـد
|
وواحـــد
كـــف
لـــه
مبســوط
|
وواحــــد
كــــأنه
مربــــوط
|
وواحــــد
يجــــود
بـــالالوف
|
وواحــد
يــؤذيه
خيــط
الصـوف
|
وواحـــد
إذا
تمطـــى
وســـطا
|
اهدى
إلى
القبيح
من
طير
القطا
|
وإنـــه
عنـــد
ذوي
الألبـــاب
|
أضــل
فـي
الخيـر
مـن
الغـراب
|
وواحــــد
كلامــــه
كالســـحر
|
وواحــــد
كلامــــه
كالصـــخر
|
وواحـــد
فـــي
نطقـــه
يســرُ
|
تـــود
لـــو
أنـــه
يســـتمر
|
وواحــد
لا
تشــتهي
أن
تســمعه
|
يبغــي
حزامـاً
دائمـاً
وبردعـة
|
ســبحان
مــن
يختــص
بالأسـرار
|
مـن
شـا
مـن
العبيـد
والأحـرار
|
ســبحان
مــن
يختــص
بالأسـرار
|
مـا
شـا
مـن
الأخشـاب
والأحجـار
|
ســبحان
مــن
يختــص
بالأسـرار
|
ماشــا
مــن
الـزروع
والأشـجار
|
ســبحان
مــن
يختــص
بالأسـرار
|
مـا
شـا
مـن
الحبـوب
والثمـار
|
لــو
أن
ذا
مـن
عمـل
الطبـائع
|
ما
اختلفوا
في
الوصف
والصنائع
|
بـل
هـو
مـن
فعـل
حكيـم
قـادر
|
وخـــالق
للعـــالمين
فـــاطر
|
تخـــالف
ليـــس
لــه
نهايــة
|
فــي
بعضــه
عــن
كلـه
كفايـة
|
والحمــد
للــه
علــى
التمـام
|
والشـكر
فـي
بـدء
وفـي
الختام
|
ثــم
الصــلاة
والســلام
أبــداً
|
علــى
ختـام
المرسـلين
أحمـدا
|
ثــــم
علـــى
أصـــحابه
والآل
|
أهـل
التقـى
والعلـم
والكمـال
|